Wednesday, October 17, 2018

मी टू 

बता दूँ क्या 
या रहने दूँ 
जो मुरदे गड़े हुए हैं 
उन्हें उखाड़कर क्या होगा 
जो हो चुका 
उसे अनहुआ तो कर नहीं सकते 

कौन बताएगा कि उसमें
 किसकी कितनी सहमति थी 
कितनी मौकापरस्ती 
और कितनी मजबूरी 
बीसियों साल से नहीं खुली बात 
तो इनमें से कुछ तो रहा होगा 

और ये मी टू भी 
कितने असली हैं 
और कितने प्रायोजित 
कौन जाने 

जो हो रहे हैं बलात्कार, छेड़छाड़, हिंसा 
आज के दिन 
उसे रोको यार 
जो बीत गयी 
उस बात को जाने भी दो यारो 

Thursday, October 4, 2018

उस दिन का भय 

इस  चराचर जगत के नियन्ता 
सर्वशक्तिमान हे ईश्वर!
बड़ा गुमान है तुम्हें कि 
नाना रूप-रंग से भरी सृष्टि में 
अपना-अपना जीवन जीते प्राणी 
तुम्हारी ही कठपुतलियाँ हैं 
उँगलियों में बंधी डोर से इन्हें नचाते तुम 
इन्हें स्वायत्त होने का भ्रम दिए रहते हो 
इस अदृश्य डोर को 
कितने ही सुन्दर नाम दिए हैं तुमने -
नियति, भाग्य, प्रारब्ध, होनी|| 
तुम्हारे इस कमाल से 
समूचे जगत में धमाल मचा रहता है -
नाचने और नचाने का धन्यतापूर्ण दृश्य| 

पर ऐसा भी तो होता है न 
कभी-कभी कोई कठपुतली 
सचमुच स्वायत्त होकर 
झटके से डोर तोड़ देती है  
वह जीवित रहे या न रहे
तुम्हारे नियंत्रण को  
चुनौती तो देती ही है | 

हे सर्वशक्तिमान ईश्वर!
क्या तुम्हें उस दिन का भय नहीं सताता 
जब सब कठपुतलियां 
तुम्हारी उँगलियों से बँधी डोर तोड़ 
अपना भाग्य स्वयं निर्धारित करेंगी \
और अपना ईश्वर भी स्वयं ही रचेंगी?

Tuesday, September 25, 2018

हम और तुम 


यह रंग हमारा है,
यह तुमसे ज्यादा हमारा है।

हम सर्वधर्म समभाव वाले हैं,
हम सभी धर्मों के साथ निभाव वाले हैं।

हम कमजोरों को आरक्षण देते हैं,
हम उन्हें और अधिक आरक्षण देते हैं।

हम जलसे, जुलूस, लूटपाट और सामूहिक हत्याएं करवाते हैं,
हम और अधिक जलसे, जुलूस, लूटपाट और सामूहिक हत्याएं करवाते हैं।

हम भ्रष्टाचार मिटाएंगे,
हम तुम्हारा भ्रष्टाचार दिखाएंगे।

और अब भी तुम पूछ रहे हो -
क्यों इस तंत्र में लोक बेहाल है? 

Thursday, March 20, 2014

सम्बन्धों की  परतें 

मानवीय सम्बन्धों की परतें अचरज में डाल देती हैं. अचरज का मुख्य कारण यही होता है कि हमें बचपन में ही हर सम्बन्ध का एक प्रारूप संस्कार के रूप में पकड़ा दिया जाता है. अपने बड़ों द्वारा कभी मौखिक रूप से बताया जाता है, कभी कथा-कहानियों के रूप में, कभी स्कूलों में नैतिक शिक्षा के रूप में- कि आदर्श संतान, भाई-बहन, माता, पिता, गुरु, शिष्य, मालिक, नौकर, पडोसी आदि सम्बन्धों से क्या अपेक्षा की जाती है. हम परिवेश से कानों में पड़ती स्तुति और निंदा से भी ग्रहण करते हैं कि किस सम्बन्ध में कैसा व्यवहार वांछित अथवा अवांछित है.
समस्या तब आती है जब हम उन प्रारूपों को मन में लिए वास्तविक जीवन में उतरते हैं.
तब हम देख पाते हैं कि हर सम्बन्ध के आदर्श के तौर पर वांछित रूप और वास्तविक उपलब्ध रूप में कितना अंतर है. हम विचलित होने लगते हैं. छद्म से हमारा परिचय होने लगता है. बहुत बार विद्रोही अथवा आत्महंता प्रवृत्तियां मानसिकता पर छाने लगती हैं.
प्रायः यही होता है कि जीवन की ओर आकर्षित होने की सहज प्रवृत्ति के चलते हम भी उन्हीं छद्मों को अपनाने लगते हैं जिन्हें हम परिवेश में देखते हैं.

Friday, October 30, 2009

यह सांपिन कब पीछा छोड़ेगी?

यह भी कोई जीना हुआ कि हर दम लगता रहे जो भी हम खा-पहन रहे हैं वह नापा-तौला जा रहा है, कि वह शायद हमारा नहीं किसी और का है जबकि सच्चाई यह हो कि वह हमारा सहज अधिकार है
हर दम ख़ुद को फालतू पाता व्यक्ति आख़िर कब तक स्वयं को आत्मदया का शिकार होने से बचा सकता है?
आत्मदया क्या आत्महनन नहीं है?
स्त्री का जीना हर दम जंचता-तुलता क्यों रहता है?
और स्त्री अगर अविवाहित हो तो घर के सदस्यों से लेकर नौकर तक और पड़ोसी से लेकर सहकर्मी तक उसकी पड़ताल में लगे रहते हैं
भाई-भाभियाँ उसे बाप की दौलत से खाते-पीते देख त्योरियों पर बल डाले रहते हैं और पारिवारिक मकान में रहते देख सोचते रहते हैं कब बाप की संपत्ति पर बैठी यह सांपिन पीछा छोड़ेगी
उसकी मानसिक स्थिति का अंदाज़ लगाना आसान नहीं है

Thursday, October 1, 2009

मन की सोच 

मन की एक सोच यह भी है कि कुछ भी मत सोचो. बिना सोचे बेहतर काम चलता है और भली प्रकार से ज़िन्दगी गुज़र जाती है. सोच सारी मुसीबतों की जड़ है. महाकवि ने कहा भी है- सब ते भले मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति.