Friday, October 30, 2009

यह सांपिन कब पीछा छोड़ेगी?

यह भी कोई जीना हुआ कि हर दम लगता रहे जो भी हम खा-पहन रहे हैं वह नापा-तौला जा रहा है, कि वह शायद हमारा नहीं किसी और का है जबकि सच्चाई यह हो कि वह हमारा सहज अधिकार है
हर दम ख़ुद को फालतू पाता व्यक्ति आख़िर कब तक स्वयं को आत्मदया का शिकार होने से बचा सकता है?
आत्मदया क्या आत्महनन नहीं है?
स्त्री का जीना हर दम जंचता-तुलता क्यों रहता है?
और स्त्री अगर अविवाहित हो तो घर के सदस्यों से लेकर नौकर तक और पड़ोसी से लेकर सहकर्मी तक उसकी पड़ताल में लगे रहते हैं
भाई-भाभियाँ उसे बाप की दौलत से खाते-पीते देख त्योरियों पर बल डाले रहते हैं और पारिवारिक मकान में रहते देख सोचते रहते हैं कब बाप की संपत्ति पर बैठी यह सांपिन पीछा छोड़ेगी
उसकी मानसिक स्थिति का अंदाज़ लगाना आसान नहीं है

Thursday, October 1, 2009

मन की सोच 

मन की एक सोच यह भी है कि कुछ भी मत सोचो. बिना सोचे बेहतर काम चलता है और भली प्रकार से ज़िन्दगी गुज़र जाती है. सोच सारी मुसीबतों की जड़ है. महाकवि ने कहा भी है- सब ते भले मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति.