यह भी कोई जीना हुआ कि हर दम लगता रहे जो भी हम खा-पहन रहे हैं वह नापा-तौला जा रहा है, कि वह शायद हमारा नहीं किसी और का है जबकि सच्चाई यह हो कि वह हमारा सहज अधिकार है।
हर दम ख़ुद को फालतू पाता व्यक्ति आख़िर कब तक स्वयं को आत्मदया का शिकार होने से बचा सकता है?
आत्मदया क्या आत्महनन नहीं है?
स्त्री का जीना हर दम जंचता-तुलता क्यों रहता है?
और स्त्री अगर अविवाहित हो तो घर के सदस्यों से लेकर नौकर तक और पड़ोसी से लेकर सहकर्मी तक उसकी पड़ताल में लगे रहते हैं।
भाई-भाभियाँ उसे बाप की दौलत से खाते-पीते देख त्योरियों पर बल डाले रहते हैं और पारिवारिक मकान में रहते देख सोचते रहते हैं कब बाप की संपत्ति पर बैठी यह सांपिन पीछा छोड़ेगी।
उसकी मानसिक स्थिति का अंदाज़ लगाना आसान नहीं है।
Friday, October 30, 2009
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