Thursday, March 20, 2014

सम्बन्धों की  परतें 

मानवीय सम्बन्धों की परतें अचरज में डाल देती हैं. अचरज का मुख्य कारण यही होता है कि हमें बचपन में ही हर सम्बन्ध का एक प्रारूप संस्कार के रूप में पकड़ा दिया जाता है. अपने बड़ों द्वारा कभी मौखिक रूप से बताया जाता है, कभी कथा-कहानियों के रूप में, कभी स्कूलों में नैतिक शिक्षा के रूप में- कि आदर्श संतान, भाई-बहन, माता, पिता, गुरु, शिष्य, मालिक, नौकर, पडोसी आदि सम्बन्धों से क्या अपेक्षा की जाती है. हम परिवेश से कानों में पड़ती स्तुति और निंदा से भी ग्रहण करते हैं कि किस सम्बन्ध में कैसा व्यवहार वांछित अथवा अवांछित है.
समस्या तब आती है जब हम उन प्रारूपों को मन में लिए वास्तविक जीवन में उतरते हैं.
तब हम देख पाते हैं कि हर सम्बन्ध के आदर्श के तौर पर वांछित रूप और वास्तविक उपलब्ध रूप में कितना अंतर है. हम विचलित होने लगते हैं. छद्म से हमारा परिचय होने लगता है. बहुत बार विद्रोही अथवा आत्महंता प्रवृत्तियां मानसिकता पर छाने लगती हैं.
प्रायः यही होता है कि जीवन की ओर आकर्षित होने की सहज प्रवृत्ति के चलते हम भी उन्हीं छद्मों को अपनाने लगते हैं जिन्हें हम परिवेश में देखते हैं.

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