उस दिन का भय
इस चराचर जगत के नियन्ता
सर्वशक्तिमान हे ईश्वर!
बड़ा गुमान है तुम्हें कि
नाना रूप-रंग से भरी सृष्टि में
अपना-अपना जीवन जीते प्राणी
तुम्हारी ही कठपुतलियाँ हैं
उँगलियों में बंधी डोर से इन्हें नचाते तुम
इन्हें स्वायत्त होने का भ्रम दिए रहते हो
इस अदृश्य डोर को
कितने ही सुन्दर नाम दिए हैं तुमने -
नियति, भाग्य, प्रारब्ध, होनी||
तुम्हारे इस कमाल से
समूचे जगत में धमाल मचा रहता है -
नाचने और नचाने का धन्यतापूर्ण दृश्य|
पर ऐसा भी तो होता है न
कभी-कभी कोई कठपुतली
सचमुच स्वायत्त होकर
झटके से डोर तोड़ देती है
वह जीवित रहे या न रहे
तुम्हारे नियंत्रण को
चुनौती तो देती ही है |
हे सर्वशक्तिमान ईश्वर!
क्या तुम्हें उस दिन का भय नहीं सताता
जब सब कठपुतलियां
तुम्हारी उँगलियों से बँधी डोर तोड़
अपना भाग्य स्वयं निर्धारित करेंगी \
और अपना ईश्वर भी स्वयं ही रचेंगी?

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